मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

ज़िन्दगी

मज़दूर औरत की पीठ पर
बंधा बच्चा होती है
ज़िन्दगी
अधपर ही झूलना
है जिसकी नियति
संदिग्ध मगर बेख़ौफ़ !

पहाड़ों पर झूलती हुई
बेलों को
देखा है कभी तुमने...
विश्वास के साथ
थमी रहती हैं उनकी साँसे
की मिट्टी की पकड़
कभी ढीली न होगी
जानते हुए भी
कि पहाड़ी मिट्टी
बड़ी धोखेबाज़ होती है !
हज़ारों फ़ुट खींच सकती है
सिर्फ नीचे ! मौत तक !

मगर बच्चों को बाँधे
मज़दूर औरतें
वहाँ भी मिल जाती हैं !

चलो एक छलाँग लो
रेगिस्तान की ओर
तपती हुई पीली रेत
ख़त्म नही कर पायी
युगों से
कैक्टस की हरियान्ध
और जिजीविषा
क्योंकि
सीख चुका है वह
जीने और फैलने की कला
नवजगत तक !

जैसे फैल जाता है
मज़दूर औरत की पीठ पर
बंधा बच्चा
जब समझने लगता है वह
अधपर झूलने के नुकसान
और ज़िन्दगी के मायने ।



करुणा सक्सेना
२० जनवरी २०१७

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें