बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

विचार-विमर्श

एक रोज़
दही से मथ दिए सारे विचार
अम्मा ने
कहे कि यही विमर्श है !
साध लो...!!

आँगन में गढ़ी सिल और गहरा गई
आजन्म लोढ़े सी अम्मा पीसती है...
तीखे मसाले और विचार
बहुत हुआ... मझली का !
कमबख्त बी ए की किताबें
क्या क्या सिखा गईं बहुओं को..

बड़की ने तो काट लिए थे
पूरे बारह बरस....
आँगन में खाटों पर सूखते सूखते
पापड़ और बड़ी के साथ
सो तो न कौंधे विचार....!
छुटकी भी गाय की घण्टी सी
बजती है मंद मंद
लच्छन की मारी है..!!

और ये मझली....हाय!!
कोहराम मचा है इसका
कि कुछ ज़्यादा ही करती है तर्क
मनाही पर भी विचारती है
और बेपर्दा संवादों से
विमर्श साधती है ।


करुणा सक्सेना