शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

किताबें और बालिका शिक्षा

छोटी छोटी किताबें
करती रहीं संघर्ष
कलम भी कागज़ों के पीछे
सहमी हुई 
माँगती रही हक़....
बराबरी का !

बाँकपन में कंचों का खेल
उंगलियों का
अभ्यास होता है !
तो क्या सारे खेल
उंगलियों से नही खेले जाते ?

लापरवाह गेंद हँसती रही
गम्भीर घड़े टूटते रहे.... बेबस
वक़्त और जल
दोनों बह गए
वक़्त रुका नही
जल सूखा नही !

क्योंकि किताबें
करती रहीं संघर्ष
सहमे हुए शब्द
माँगते रहे हक़.......
बराबरी का !

ज़्यादा की चाह नही रही
मगर संतुलन को
नकार नही सकी
क्योंकि हर संघर्ष का उद्देश्य
संतुलन होता है ।



करुणा सक्सेना

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

ज़िन्दगी

मज़दूर औरत की पीठ पर
बंधा बच्चा होती है
ज़िन्दगी
अधपर ही झूलना
है जिसकी नियति
संदिग्ध मगर बेख़ौफ़ !

पहाड़ों पर झूलती हुई
बेलों को
देखा है कभी तुमने...
विश्वास के साथ
थमी रहती हैं उनकी साँसे
की मिट्टी की पकड़
कभी ढीली न होगी
जानते हुए भी
कि पहाड़ी मिट्टी
बड़ी धोखेबाज़ होती है !
हज़ारों फ़ुट खींच सकती है
सिर्फ नीचे ! मौत तक !

मगर बच्चों को बाँधे
मज़दूर औरतें
वहाँ भी मिल जाती हैं !

चलो एक छलाँग लो
रेगिस्तान की ओर
तपती हुई पीली रेत
ख़त्म नही कर पायी
युगों से
कैक्टस की हरियान्ध
और जिजीविषा
क्योंकि
सीख चुका है वह
जीने और फैलने की कला
नवजगत तक !

जैसे फैल जाता है
मज़दूर औरत की पीठ पर
बंधा बच्चा
जब समझने लगता है वह
अधपर झूलने के नुकसान
और ज़िन्दगी के मायने ।



करुणा सक्सेना
२० जनवरी २०१७

शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

बसन्त ऋतु

गीतिका छन्द

ऐ बसन्ती पात पीले, हाथ पीले मैं चली,
बिछ गई रौनक सजीली, है छबीली हर कली ।

आम पर नव बौर आई, ठौर पाई रीत की,
रात कोयल गुनगुनाई, राग डोली प्रीत की ।

आ गए राजा बसन्ती, क्या छटा रस रूप की
मैं निराली संग हो ली, चिर सुहागिन भूप की ।

नाम मेरा सरस सरसों, बरस बीते मैं खिली,
देख निज राजा बसन्ती, पुलकती फूली फली ।

अब हवा में छैल भरती, गैल भरती नेह की,
ज्यों बढ़ाती धूप नन्दा, नव सुगन्धा देह की ।

रात भर चलती बयारें, टोह मारे बाज सी,
प्राण सेतू बह्म सींचें, आँख मींचे लाज सी ।

देस धानी प्रीत घोले, मीत बोले नैन में,
तन गुजरियाँ राह चलतीं, ढार मटकी चैन में ।

त्योंरियाँ छैला गुलाबी, यों चढ़ाता मान से,
धार से काँकर बजाता, मोह लेता गान से ।

करुणा सक्सेना