पीहर के हरे रंग में
रचा बसा है आत्मा का कुठीला..!
तरबतर है...
कुँज गलियों की दमकती मिट्टी से...!
जैसे नदी बार बार ढलान उतरना चाहती है
ठीक उलट.. चैती पड़वा का
चढ़ता सूरज होती है अम्मा...
हर बार नई नई सी...!
इस बार फिर
बाँधती हैं गठरी मुँह अंधेरे बेटियाँ
नीली-नीली झीनी रौशनी में
बीन-बीनकर सारे हरे रंग..!
भोर के गीत को गाती पहुँचती हैं
जैसे आते हैं चैतुआ मीत...
काटते हैं फ़सल
गाते हैं गीत.....!
और लौट लेते हैं
हर बरस आने की इच्छा लिए ।
करुणा सक्सेना