सोमवार, 26 दिसंबर 2016

इंतज़ार

आरम्भ होता है इंतज़ार
सदैव
रात के आखिरी पहर से
पर्दे की ओट में
देखती हूँ बाहर का घुप्प अँधेरा
भीतर का करते हुए अनदेखा
की बस...
अब भोर हुई
और समेट लेती है निशा
अपनी झिलमिल ओढ़नी
कि इंतज़ार है किसी को
सुबह का...

कुछ पैनी आवाज़ों के साथ
खनकते हैं गैंती, फावड़े और तस्सल
दिहाड़ी मजदूर के
उठते हैं पहली किरण के साथ
और यहाँ भीतर
अलार्म के खनकने से पहले
खनकने लगती हैं चूड़ियाँ
बेलते हुए परोंठे
मगर कुछ धीमे
कि सो रहे हैं
घर में लोग अभी तक
बेफिक्री से....
छोटे छोटे हाथों को थामे
लगभग दौड़ती हूँ
बाहर दरवाज़े तक
इंतज़ार में
देश के भविष्य की बस का !

अब कुछ ताप बढ़ा...
खट पट्ट की धारदार आवजों के साथ
संगत करते हैं फावड़े और तस्सल
ठीक वैसे ही जैसे
चॉक और ब्लैक बोर्ड की खट पट्ट
जन्म देती है
संसार के समूचे ज्ञान को !

निकलते ही बस... लौटती हूँ वापस
भारी कदमो से
भीतरी अँधेरों में..
एक बार फिर खो जाने के लिए

और वहाँ बन रही है
स्कूल की नई इमारत...
कौतुहल है भारी!
बच्चों के बीच...
बैठने के निर्धारित स्थानों के इंतज़ार में
इंतज़ार तो मुझे भी है
निश्चित करना है अब
अपना स्थान...

ताप कुछ और बढ़ा.. 
कपड़े, मोज़े, बटुआ और चश्मा
और निकलने लगे रेले
दफ्तरों की ओर
जैसे मुझे ही सम्भालनी हों
सारी अस्त व्यस्त फाइलें..

फिर एक इंतज़ार.. और गूँज उठी दोपहर
खिलखिला कर गोद में मेरी
कि लौट आएं हैं बच्चे
उनके हज़ारों किस्सों की इमारत
और इमारत के हज़ारों किस्से...
घूमते हैं दिनभर.. मेरे भीतर भी !

अब शाम ढली...
और लौटने लगे रेले..
सब लौट आये.. मगर मैं ?
और वहाँ.. उस मज़दूर की औरत
खड़का रही है कनस्तर आटे का
जमा रही है फावड़े और तस्सल..
यहाँ.. मुझे भी लौटना होगा..
दरवाज़े के दोनों तरफ मैं ही खड़ी हूँ
इंतज़ार में... इंतज़ार करते हुए
स्वयं के लौटने का ।

करुणा सक्सेना

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