शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

घर

घर
केवल अस्थि है
यज्ञ करो !
रीत दो ताल को
हे मीन...
तुम मरो !
अंतड़ियों के घाव पर
धैर्य धरो,
घर केवल अस्थि है
यज्ञ करो !

बंदी है गति औ’
गति का परिहास हो
अश्व के अश्रु औ’
बेड़ियों का हास हो
मृत न हो
हो न मोक्ष
युक्ति की चाल धरो
घर केवल अस्थि है
यज्ञ करो !

शीत हो
निश्तेज हो
भेद दो श्वांस को
त्रास हो
रास हो
भाव का विध्वंस करो..
मृत न हो
हो न मोक्ष
ध्यान धरो... 
घर केवल अस्थि है
यज्ञ करो ।


करुणा सक्सेना

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर।करुणा जी!
    मेरे ब्लॉग पर भी आइएगा।आपका स्वागत है।

    जवाब देंहटाएं
  2. अच्छी कविता है। आशा करता हूँ कि और कविताएं पढ़ने को मिलती रहेंगी ।

    जवाब देंहटाएं
  3. सुंदर कविता
    बेहतरीन प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं