शनिवार, 10 दिसंबर 2016

तीसरा वनवास

छोर हो तुम
छोर हूँ मैं
बीच मे है बह रहा संघर्ष
फिर भी हर्ष
कि स्थिर हो तुम...
मैं तो अडिग हूँ राह में
कबसे मिलन की चाह में
पर बन्द ही होता नही
संघर्ष का बहना
कि छूटता ही है नही
जीवन का यह गहना
फिर भी बनी रहती है
मुझमें प्यास
है यह आस..
कितने कभी हो दूर
तो कितने कभी हो पास
कि ख़त्म ही होता नही
यह तीसरा वनवास ।

करुणा सक्सेना

5 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय दिग्विजय अग्रवाल जी..... सादर आभार।

    जवाब देंहटाएं
  2. अच्छा लिखती हैं । जारी रहे लेखन इसी तरह।

    जवाब देंहटाएं
  3. सुखद आस्चर्य हुआ कविता पढ़कर प्रिय करुणा .. अब नियमित देखूँगी . मेरे ब्लाग भी देखना .

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर आभार दीदी... आपकी रचनाएँ भी बहुत मनभावन होती हैं ।

      हटाएं