घर
केवल अस्थि है
यज्ञ करो !
रीत दो ताल को
हे मीन...
तुम मरो !
अंतड़ियों के घाव पर
धैर्य धरो,
घर केवल अस्थि है
यज्ञ करो !
बंदी है गति औ’
गति का परिहास हो
अश्व के अश्रु औ’
बेड़ियों का हास हो
मृत न हो
हो न मोक्ष
युक्ति की चाल धरो
घर केवल अस्थि है
यज्ञ करो !
शीत हो
निश्तेज हो
भेद दो श्वांस को
त्रास हो
रास हो
भाव का विध्वंस करो..
मृत न हो
हो न मोक्ष
ध्यान धरो...
घर केवल अस्थि है
यज्ञ करो ।
करुणा सक्सेना
केवल अस्थि है
यज्ञ करो !
रीत दो ताल को
हे मीन...
तुम मरो !
अंतड़ियों के घाव पर
धैर्य धरो,
घर केवल अस्थि है
यज्ञ करो !
बंदी है गति औ’
गति का परिहास हो
अश्व के अश्रु औ’
बेड़ियों का हास हो
मृत न हो
हो न मोक्ष
युक्ति की चाल धरो
घर केवल अस्थि है
यज्ञ करो !
शीत हो
निश्तेज हो
भेद दो श्वांस को
त्रास हो
रास हो
भाव का विध्वंस करो..
मृत न हो
हो न मोक्ष
ध्यान धरो...
घर केवल अस्थि है
यज्ञ करो ।
करुणा सक्सेना
बहुत सुन्दर।करुणा जी!
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर भी आइएगा।आपका स्वागत है।
शुक्रिया आदरणीया सुधा जी...
हटाएंअच्छी कविता है। आशा करता हूँ कि और कविताएं पढ़ने को मिलती रहेंगी ।
जवाब देंहटाएंआभार आपका अनुपम जी
हटाएंआभार आपका
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति
आभार आदरणीय..!
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